रंज़िशें
ये ट्रेन गुज़र रही कटक की पहाड़ियों से
विशाखापत्तनम के किनारों से
खेतों से खलिहानों से
दूर बच्चे हाथ हिलाते बाय कह रहे हैं
और ये ट्रेन उसी तेजी से, उसी भाव से
चली जा रही, अपनी धुन में मगन हो
किसी से कोई रंज़िश नहीं, गिला-शिकवा नहीं,
हँसती-खिलखिलाती सबको पीछे छोड़ती मंज़िल की ओर
जिसने मुस्कुराकर गले लगाया, ईंधन-पानी-सवारी दिए
उन स्टेशनों पर रुकी थोड़ी ज़्यादा देर
जहाँ कुछ ना मिला, वहाँ भी उसी सुखी भाव से गयी
न बहुत लगाव रखा किसी से, न रंज़िश किसी से...
मैं भी जो ढोता रहा हूँ रंज़िशें बोझ बनाकर... उन्हें उतार दूँ
सफ़र में हूँ, मंज़िल की ओर, क्यूँ किसी से अधिक लगाव रखूँ
जो लोग भले मिलते हैं, प्रेम से मिलूँ उनसे, लगाव से नहीं...
जो कठिन लोग मिलते हैं, उनसे भी कोई रंज़िश क्यूँ
ये सफ़र सुहाना रहे...
मंज़िल.... मंज़िल तो कैसी होगी, मैं नहीं जानता
बस इस सफ़र को जानता हूँ अभी तो
ये सफ़र सुहाना रहे...
चन्द्र 'अम्बर'
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