कलम घिस रहा हूँ...

सुबह की बेला है...
कुछ लिख लेने को मन कर रहा है
फिज़ा में खुशबू है, सूरज में लालिमा,
आँखों से नींद की सिकुड़न गयी नहीं अभी।

कोरे कागज़ों को लेकर
कलम घिसता चला जा रहा हूँ...
लिखता हूँ, काटता हूँ, सुधारता हूँ,
कोई मिसरा सूझ आए...
सड़क पे टहलने निकल जाता हूँ! 

अब भाव शब्दों में उतने सहज नहीं बहते,
इन शब्दों से जो मैं खेलता फिरता था,
इनका तुक अब नहीं जमता... 
आसमां में सूरज अब तेज़ हो आया है,

मैं वापिस कमरे में लौट आया हूँ..
अंधेरी कोठरी में बत्ती जलाकर
कोई किताब लेकर बैठ गया हूँ,
ये शब्द यहाँ भी चिढ़ाने लगे हैं मुझको,

मैं कोरे कागजों को लेकर
फिर कलम घिस रहा हूँ,
अपने ख़यालों के संग जी रहा हूँ!!!

-अम्बर 

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