रेत की रंगोली, चटक लाल, पीली, नीली!
क्या खूब बनी हुई, जैसे कोई चित्र!
मगर रंगोलियां चित्रकारी नहीं होतीं...
रंगोली बनती है मिटने को, उजड़ने को!

नाकामी नियत है संजोने की कोशिशों में, 
सत्य! दो ही प्रकृति में - संगठन और विघटन!
या तो हम गठन करते, या विघटन!
संजोने की कोई गुंजाइश नहीं यहाँ. 

तुम भी एक सुंदर रंगोली हो! 
विस्मय भरी एक पहेली हो, 
खूब सुलझाने के क्रम में 
रेत की पहेलियाँ बिखर जातीं! 

रंगोलियां फूलों की भी बनतीं!
जितने रेत खुरदुरे, उतनी वो कोमल.
मगर फूल भी चिरंजीव नहीं होते! 
गर्मियों में सूखते, बरसात में सड़ते!

इतने के बावजूद भी, 
फूलों के खिलने में, उनके रंगों से
चटक रेत के कठोर कणों से 
रंगोलियों के बनने में, प्रकृति है!

उसका आनंद है, 
उसका संयोग है. 
और उसके प्रेम का वियोग भी! 
उसका बनना, बिगड़ना सब!

-अम्बर 

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