ख़ाली ट्रेनें
भटकता हुआ, ट्रेनों में पन्ने लेकर
बैठा रहता, कुछ लिख लेने को
कोई हवा का झोंका उड़ा न ले जाए
कस के पकडता उन पन्नों को...
गंगा गुज़रतीं तो मैं लिखता कोई सुंदर मिसरा
कभी खिड़की से बहार झाँकता तो
बच्चे दिख जाते कुछ हाथ हिलाते, खिलखिलाते, शरारत करते
दो-चार गपियाते अंकल-आंटियों से कुछ बहस हो जाती।
सोचता, ये ट्रेनें भी बड़ी गज़ब चीज़ें हैं
सब जगह घूम आती हैं, पूरब-पश्चिम-उत्तर-दक्खिन
फिर भी कोई अहं नहीं, कोई खुशी का एहसास नहीं
किसी मनोरंजन का कोई अट्टहास नहीं, पिपासा का कोई दर्द नहीं
इस ट्रेन ने कितना कुछ देखा होगा
कितने खिलखिलाते चेहरे रोज दिखते होंगे
कितने अनजानों की दोस्ताना कहानियां लिखी होंगी
कितनों को मिलवाया होगा, बिछड़वाया होगा....
मगर ये ट्रेन खाली-खाली है आज
ये खाली ट्रेन आज उदास लग रही है
अब इन खाली ट्रेनों में लिखने का मन नहीं करता
गंगा पुल से गुजरने पर तैरती लाशें दिखती हैं, कौंध जाता हूँ..
सिमट कर रह जाता हूँ, इस ट्रेन को सुनकर
बीच-बीच में कोई पानी बेचने आता है,
तो पल भर खुश हो जाता हूँ.....
ये ट्रेन इस कदर खाली हो जाएगी, सोचा न था....
त्रासदियों को भूल जाना, या कमसकम
भूल जाने का दिखावा करना, फ़ितरत है इंसानी...
मगर मैं कैसे भूल जाऊँ उस खाली ट्रेन को????
उसकी कौंधती धड़कनों को, उसकी अनवरत पुकारों को.............
चन्द्र प्रकाश गुप्त 'अम्बर'
© Chandra Prakash 2021
Photo by Ms. Anjani
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